सम्मान या सौदा? छत्तीसगढ़ में मीडिया की नई और खतरनाक परंपरा।
Rakesh Sahu
जांजगीर चांपा। कोरिया, जांजगीर चांपा। छत्तीसगढ़ में इन दिनों एक नई परंपरा बड़ी तेज़ी से पनप रही है मीडिया के नाम पर सम्मान समारोह,दिखने में भले ही यह सामाजिक सम्मान लगे, लेकिन इसके भीतर जो चल रहा है,वह पत्रकारिता के मूल सिद्धांतों के बिल्कुल उलट है, सवाल सीधा है क्या किसी न्यूज़ चैनल या समाचार पत्र का सामान्य सा सम्मान समारोह आयोजित कर,चंदा इकट्ठा कर,और नेताओं के हाथों से चुनिंदा लोगों को सम्मानित करना उचित है? और उससे भी बड़ा सवाल क्या यही मीडिया का काम है? लोकतंत्र में मीडिया को चौथा स्तंभ इसलिए कहा गया क्योंकि उससे यह अपेक्षा थी कि वह सत्ता, व्यवस्था और समाज तीनों के सामने आईना बनकर खड़ा रहेगा, लेकिन आज वही मीडिया अगर आईना छोड़कर मंच संचालक, सम्मान वितरक और सौदेबाज़ की भूमिका में उतर आए, तो यह केवल पत्रकारिता का पतन नहीं, बल्कि लोकतंत्र की खुली बेइज्जती है, सम्मान नहीं, यह वैधता बेचने का कारोबार है आज जिस तरह से मीडिया के नाम पर जगह-जगह सम्मान समारोह आयोजित हो रहे हैं, वह किसी भी जिम्मेदार समाज के लिए खतरे की घंटी है, यह सम्मान न किसी संवैधानिक प्रक्रिया से जुड़ा है, न किसी नैतिक कसौटी पर खरा उतरता है, न ही जनहित से इसका कोई सरोकार है, यह केवल एक लेन-देन आधारित वैधता प्रमाणपत्र बन चुका है जहां पैसा, रसूख और सत्ता-समीकरण के बदले चरित्र पर लगी कालिख को सम्मान से ढक दिया जाता है, अगर यह ट्रेंड नहीं रुका तो आने वाली पीढ़ी के लिए पत्रकारिता का मतलब होगा मंच, माला और प्रमाणपत्र और तब सच बोलने वाला पत्रकार सम्मानित नहीं, अकेला और बेरोज़गार होगा, यह सम्मान की परंपरा नहीं, चौथे स्तंभ का आत्मसमर्पण है और आत्मसमर्पण करने वालों को इतिहास कभी माफ़ नहीं करता।
मीडिया सवाल पूछे या शॉल ओढ़ाए?
मीडिया का काम है जिन पर आरोप हैं, उनसे सवाल पूछना,जिन पर शक है, उनसे जवाब मांगना,जिनके हाथ गंदे हैं,उन्हें उजागर करना लेकिन जब वही मीडिया उन्हीं लोगों को मंच पर बुलाकर शॉल,श्रीफल और प्रमाण-पत्र थमाने लगे,तो सवाल उठना स्वाभाविक है कल जब इनके खिलाफ खबर करनी होगी, तो क्या मीडिया नैतिक रूप से सक्षम रहेगा? या फिर सम्मान की तस्वीरें खबर की रीढ़ तोड़ देंगी? यह विडंबना नहीं,अपराध है कि जिन व्यक्तियों पर आपराधिक प्रकरण दर्ज हैं भ्रष्टाचार की जांचें चल रही हैं सत्ता के दलाल होने के आरोप हैं उन्हें मीडिया मंच पर समाज के आदर्श की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है, यह न सिर्फ जनता की आंखों में धूल झोंकना है, बल्कि सच बोलने वाली पत्रकारिता पर सीधा हमला है।
सम्मान का अर्थ और मीडिया की सीमा
सम्मान का मतलब होता है उत्कृष्ट कार्य की सार्वजनिक स्वीकृति, जब कोई सरकार अपने कर्मचारियों को,कोई संस्था अपने कर्मियों को, या कोई कंपनी अपने उत्कृष्ट योगदान देने वालों को सम्मानित करती है, तो वह समझ में आता है, उसी तरह यदि कोई मीडिया संस्थान अपने रिपोर्टर, एंकर,कैमरामैन,संपादक या तकनीकी स्टाफ को उनके साहसिक, ईमानदार और जनहितकारी कार्य के लिए सम्मानित करे तो यह न सिर्फ उचित है, बल्कि सराहनीय भी है, लेकिन समस्या वहां शुरू होती है, जहां मीडिया अपने दायरे से बाहर निकलकर उन लोगों को सम्मानित करने लगता है जिनसे सवाल पूछना उसका कर्तव्य है।
सम्मान या धंधा? जनता को मूर्ख बनाने की नई स्कीम
सम्मान तब होता है जब वह निस्वार्थ हो, योग्यता आधारित हो, और लोकहित में हो, लेकिन आज जो हो रहा है, वह सम्मान नहीं यह टिकट लेकर मंच पर चढ़ने की व्यवस्था है, चंदा दो, फोटो खिंचवाओ, प्रमाणपत्र लो, और खुद को समाजसेवी, सम्मानित नागरिक कहलवाओ, इस पूरी प्रक्रिया में न चरित्र देखा जाता है, न आचरण, न आपराधिक पृष्ठभूमि, न भ्रष्टाचार की फाइलें, बस एक ही सवाल कितना दोगे?
आरोपी को माला,ईमानदार को सन्नाटा
यह सबसे बड़ा नैतिक अपराध है कि जिनके नाम थानों और जांच एजेंसियों की फाइलों में हैं,जिन पर भ्रष्टाचार, दलाली, वसूली और सत्ता के एजेंट होने के आरोप हैं,उन्हें मीडिया मंच पर माला पहनाकर महिमामंडित किया जा रहा है, और दूसरी तरफ जो सच बोलते हैं, जो सवाल पूछते हैं,जो जनता के पक्ष में खड़े होते हैं उन्हें या तो चुप करा दिया जाता है, या कोने में धकेल दिया जाता है।
मीडिया अब आईना नहीं, मेकअप बॉक्स बनता जा रहा है
मीडिया का काम समाज को आईना दिखाना था लेकिन अब मीडिया चेहरों पर मेकअप लगाने का औज़ार बनता जा रहा है, जिसका चेहरा सवालों से भरा है, मीडिया उसे सम्मान की रोशनी में चमका देता है, जिसकी सच्चाई काली है, मीडिया उस पर सुनहरा फ्रेम चढ़ा देता है, यह पत्रकारिता नहीं यह चरित्र धुलाई है।
चंदा,मंच और नेताःसम्मान का नया फार्मूला
आज छत्तीसगढ़ में जो मॉडल दिख रहा है, वह साफ है पहले सम्मान समारोह की घोषणा, फिर अलग–अलग नामों से चंदा संग्रह, फिर किसी मंत्री, विधायक या नेता को मंच पर बुलाना और अंत में चुनिंदा लोगों को सम्मानित करना यह सम्मान कम, इवेंट मैनेजमेंट ज़्यादा लगता है, यहां न कोई पारदर्शी चयन प्रक्रिया है, न कोई सार्वजनिक मापदंड, न कोई जवाबदेही, सवाल उठता है क्या यह सम्मान है या वैधता बेचने का एक तरीका?
क्या मीडिया को यह संवैधानिक अधिकार है?
संविधान मीडिया को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है,सम्मान वितरण का लाइसेंस नहीं,संविधान ने मीडिया को सत्ता की निगरानी का अधिकार दिया,जनता की आवाज़ बनने की जिम्मेदारी दी और गलत को गलत कहने की ताकत दी लेकिन कहीं भी यह नहीं लिखा कि मीडिया सत्ता, प्रभावशाली लोगों या विवादित चेहरों को सम्मानित कर उन्हें सामाजिक स्वीकृति प्रदान करे, यह अधिकार नहीं, स्वेच्छाचार है।
क्या यह व्यापारिक श्रेणी का नया रूप है?
यह सवाल अब टालने लायक नहीं रहा क्या ये सम्मान समारोह पत्रकारिता नहीं, एक व्यापारिक मॉडल बन चुके हैं? जहां सम्मान एक प्रोडक्ट है, मंच एक मार्केट है और मीडिया का नाम ब्रांड टैग अगर ऐसा है,तो यह पत्रकारिता नहीं,व्यापारिक गतिविधि है और बेहद खतरनाक।
मीडिया अब प्रहरी नहीं,परदा बनता जा रहा है
मीडिया का धर्म था परदे के पीछे छिपे सच को सामने लाना,लेकिन आज मीडिया खुद परदा बनता जा रहा है, जिसके पीछे भ्रष्टाचार,अपराध और सत्ता की सांठगांठ आराम से सांस ले रही है,जब मीडिया सवाल पूछने के बजाय सम्मान पत्र थमाने लगे,तो समझ लेना चाहिए कि प्रहरी सो चुका है या बिक चुका है।
सम्मान पत्रों की सामाजिक वैल्यूः शून्य
एक कड़वा सच यह भी है कि इन कथित सम्मान पत्रों की न कोई कानूनी वैल्यू है,न नैतिक वजन,ये कागज़ केवल सोशल मीडिया पोस्ट, दीवारों की सजावट और झूठे गौरव के उपकरण बनकर रह गए हैं,लेकिन इनके बदले जो गिरवी रखा जा रहा है, वह है मीडिया की साख, जिसे दोबारा खड़ा करना आसान नहीं होगा।
समाज भी उतना ही दोषी
यह संपादकीय केवल मीडिया के खिलाफ नहीं है, यह समाज से भी सवाल करता है जब समाज नकली मंचों पर ताली बजाता है, तो वह खुद अपने भविष्य के लिए नकली नायक गढ़ता है और जब समाज सवाल पूछना छोड़ देता है, तो मीडिया का यह पतन और तेज़ हो जाता है।
यह सम्मान नहीं,आत्मसमर्पण है…
स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो यह सम्मान की परंपरा नहीं,चौथे स्तंभ का आत्मसमर्पण है,अगर मीडिया ने अभी भी आत्ममंथन नहीं किया, तो आने वाला समय पत्रकारिता को सम्मान समारोहों की फाइल में दफन कर देगा,लोकतंत्र को तालियों की नहीं,सवालों की ज़रूरत है और जो मीडिया सवाल छोड़ दे,वह सम्मान का नहीं अविश्वास का पात्र बनता है, मीडिया द्वारा अपने दायरे से बाहर जाकर बाहरी व्यक्तियों को सम्मानित करना न तो स्वस्थ परंपरा है,न नैतिक,न ही पत्रकारिता के अनुकूल,यह परंपरा मीडिया की निष्पक्षता को धीरे-धीरे खोखला कर रही है,अगर अभी भी आत्ममंथन नहीं हुआ,तो आने वाले समय में मीडिया सवाल पूछने वाला नहीं,सम्मान बेचने वाला मंच बनकर रह जाएगा, और तब चौथा स्तंभ लोकतंत्र का सहारा नहीं,उसकी कमजोरी कहलाएगा।

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