​हमारे पास मौजूद पुख्ता जानकारी के अनुसार, जिले में ठेकेदारों और अधिकारियों की मिलीभगत से टेंडर प्रक्रिया में दो बड़े खेल खेले जा रहे हैं।

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 बड़ा खुलासा : CM के ही गढ़ में 'जुगाड़ तंत्र' का खुला खेल, टेंडर नियमों की धज्जियां उड़ाकर सरकारी खजाने में सेंधमारी!...


जशपुर। "जब सैयां भए कोतवाल तो डर काहे का" - यह कहावत इन दिनों मुख्यमंत्री के गृह जिले में चरितार्थ हो रही है। जहाँ एक ओर प्रदेश सरकार भ्रष्टाचार पर 'जीरो टॉलरेंस' की बात करती है, वहीं दूसरी ओर नाक के नीचे ही टेंडर प्रक्रिया में 'जुगाड़ तंत्र' का ऐसा मकड़जाल बुना जा रहा है, जिससे न केवल शासन को करोड़ों का चूना लग रहा है, बल्कि विकास कार्यों की गुणवत्ता भी दांव पर है।




खेल नंबर 1 :'बिलो रेट' का मायाजाल और गायब होती सुरक्षा निधि : ​शासन का स्पष्ट नियम है कि यदि कोई ठेकेदार निर्धारित दर (Estimate Rate) से 10% से अधिक कम (Below) रेट पर टेंडर लेता है, तो अंतर राशि (Difference Amount) को परफॉरमेंस गारंटी के तौर पर जमा करना अनिवार्य है।


* उदाहरण के लिए : यदि किसी ठेकेदार ने 25% बिलो (Below) में टेंडर लिया है, तो नियमानुसार (25 - 10 = 15%) यानी 15% राशि कार्यादेश (Work Order) जारी होने से पहले शासकीय खाते में जमा करानी होती है।


​लेकिन हकीकत यह है कि इस नियम को ताक पर रखकर चहेते ठेकेदारों को वर्क ऑर्डर बांटे जा रहे हैं। न तो अंतर राशि जमा कराई जा रही है और न ही कोई जवाबदेही तय हो रही है।


​नुकसान: 25-30% कम रेट पर काम लेने वाला ठेकेदार अगर अतिरिक्त सुरक्षा निधि भी नहीं देगा, तो वह कार्य की गुणवत्ता (Quality) से समझौता करेगा ही। नतीजा - सड़कें बनने से पहले उखड़ रही हैं और भवन समय से पहले जर्जर हो रहे हैं।


* खेल नंबर 2 : 'अतिरिक्त कार्य' (Extra Work) के नाम पर लीगल डकैती - ​यह इस घोटाले का सबसे शातिर हिस्सा है। पहले तो ठेकेदार भारी-भरकम 'बिलो रेट' डालकर टेंडर हथिया लेते हैं। नियमतः उन्हें नुकसान होना चाहिए, लेकिन यहाँ शुरू होता है 'लीगल जुगाड़'।


​अनुबंध होने के बाद, अधिकारियों की मिलीभगत से प्रोजेक्ट में 'अतिरिक्त कार्य' (Additional Work) जोड़ दिए जाते हैं। नतीजा यह होता है कि फाइनल भुगतान अनुबंध राशि से कहीं ज्यादा कर दिया जाता है।


यहाँ दो गंभीर सवाल खड़े होते हैं :


* ​क्या इंजीनियर नाकाबिल हैं? यदि प्रोजेक्ट का प्राक्कलन (Estimate) विभाग के इंजीनियर बनाते हैं और तकनीकी अधिकारी उसे पास करते हैं, तो बाद में इतना 'अतिरिक्त कार्य' कहाँ से आ जाता है? क्या यह स्वीकार किया जाए कि सरकारी इंजीनियर सही एस्टीमेट बनाने में सक्षम नहीं हैं?

* ​या यह सोची-समझी साजिश है? क्या जानबूझकर एस्टीमेट में कमियां छोड़ी जाती हैं ताकि बाद में 'रिवाइज्ड एस्टीमेट' और 'एक्स्ट्रा आइटम' के नाम पर ठेकेदारों की जेब भरी जा सके?


मुख्यमंत्री के जिले में 'दीया तले अंधेरा' - सबसे चिंताजनक बात यह है कि यह पूरा खेल स्वयं मुख्यमंत्री के जिले में चल रहा है। जिस जिले को प्रदेश के लिए 'मॉडल' होना चाहिए था, वह भ्रष्टाचार और अनियमितताओं का गढ़ बन चुका है। अधिकारियों को न तो जांच का डर है और न ही कार्रवाई का।


​जानकारों का कहना है कि जब सीएम के अपने जिले में अनियमिताओं को खाद-पानी दिया जा रहा है, तो बाकी प्रदेश के हालात की कल्पना करना भी डरावना है।


मांग : इस पूरे प्रकरण की उच्च स्तरीय निष्पक्ष जांच होनी चाहिए। जिन फाइलों में 'बिलो रेट' की अंतर राशि जमा नहीं है और जिन प्रोजेक्ट्स में अनुबंध से ज्यादा भुगतान हुआ है, उनकी रिकवरी संबंधित अधिकारियों की जेब से होनी चाहिए।


जिम्मेदार मौन हैं, और जनता का पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है। क्या शासन इस 'जुगाड़ तंत्र' पर लगाम लगा पाएगा?...


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